Shayari and kavita in hindi / किस्सा आशिक़ी और ज़िन्दगी का-शायरी/कविता आनंद/ Author -Vikash soni

i am trying, trying - Poem

 

I am trying, trying - Poem


I am trying, trying — to rise and shine,

Not late, but rolling fine.

I am trying, trying — working like wine,

Not enjoying tipsy, hope you don’t mind.


I am trying, trying — don’t cry, pain is part of life,  

Yet some memories pierce my heart like a knife.  

I am trying, trying — reaching for the sky,  

But loss teaches what money can’t buy.



I am trying, trying — with thoughts so kind,

To find someone, an angel in mind.

I am trying, trying — nobody’s rude,

But everybody’s in a different mood.


I am trying, trying — faster, fine,

Not to beat the universe’s timeline.

I am trying, trying — every time,

Without losing my lifeline. 


I am trying, trying — to find the God of wonder,

Some light in my heart tells me to look under.

I am trying, trying — every day,

Chasing my dream in this Milky Way.


                     Author - Vikash Soni



किस्सा आशिक़ी और ज़िन्दगी का -"शायरी " No. of. 206. to 210.

 


206. वो मासूमें मज़र, बड़े खास होते है,

        जब हमारे सर पर,बुजर्गो के हाथ होते है,

       क्या बचपन,क्या जवानी,कैसी उलझी कहानी,

       नजाने अकेले जहन में, कितने सवाल होते है|


                              Author -Vikash soni


207. उस खुदा ने, मुझे, बस इतने रहमों कर्म से नवाज़ा है,

        के मेरी ज़िन्दगी, हर किसी के लिए तमाशा है,

        ये अल्फाज लिखे नहीं है, कुरदे गये कागज पर,

       अब तुम्हीं देखलो,

      मैने अपना सच,कितने सालिखें से कागज पर उतरा है |


                            Author -Vikash soni


208. भला अब, क्या कहे, इस जमाने को,

        घर से निकल गये, हम कमाने को,

        क्या धोखा, क्या फरेब, हर दर्द से अब बखिफ हूँ,

        झूठा बोला, मैने, खुद के हर एक बहाने को,

        चल पड़े फिर अपनी फूटी किस्मत आजमाने को |


                            Author -Vikash soni


209. मेरे सुरते हाल, मेरी, नाकाबी बया करते है,

       कुछ पैरों के काटें, मुझे, भला इंसान समझते है,

       क्या बर्बादी मुझ पर, इतनी ज्यादा ज़चती है,

       के अब भी लोग मुझे माला माल समझते है |


                          Author -Vikash soni


210. भाई ज़िन्दगी में अब,जब भी तुमसे मुलाक़ात हो,

      तब तुम्हारे दिल में किसी भी, खर्चे का मलाल ना हो,

      उस दिन, बस इतनी ख्वाईश होगी मेरी, कि

      तुम्हारे इस भाई के सामने,पैसे की कोई ओकात ना हो |


                        Author -Vikash soni



कविता -"खुद का निर्माण " No. of. 21

          


 कविता -"खुद का निर्माण "


में करता खुद का निर्माण कही,

हाँ में टुटा हूँ ये बात सही,

दुनिया ने मेरी बातों को,

बिन शिर पैर का जाना था,

मेरे जज़्बातों को, 

कैसे ठोकर मारा था,

मेरे टुटे मन पर अब,

करना कोई आघात कभी,

में करता खुद का निर्माण कही,

हाँ में टुटा हूँ ये बात सही,

क्या मेरे अपनों का भी, 

छूटा कोई अंगत है,

क्या होली के रंगों में,

वो पहले वाली रंगत है,

क्या मेरे बिछड़े यारों,

की मेरी जैसी संगत है,

मेरे आँगन की रौनक, 

अब तक मेरी जन्नत है,

कैसे जोड़ूं इन धागों को,

इतनी मेरी मन्नत है,

मेरे अश्कों के दीपों ने,

फिकी देखी दिवाली,

क्या मेरे अपनों के चेहरों,

पर अब वो पहले जैसी मुस्कान नहीं,

में करता खुद का निर्माण कही,

हाँ में टुटा हूँ ये बात सही |


                       Author - Vikash soni

किस्सा आशिक़ी और ज़िन्दगी का -"शायरी " No. of. 201. to 205.

 


201. अब क्या दास्तान सुनाऊ, तुम्हें में, अपनी हकीकत की,

          के, की थी,मोहब्बत मैने ऊँची हैसियत की,

          फिर मेरा हर ख्वाब टूट कर बिखर गया यारों,

       उसके बाद किसी ने खबर भी ना ली मेरी खैरियत की |


                               Author - Vikash soni


202. दुनिया का गोल, होल है,

       आपका यहाँ क्या गोल है,

        हर बात का यहाँ मोल है,

        मेरे बस इतने बोल है|


                                Author - Vikash soni


203. जिस में ना सुर है ना ताल है,

       बाजार में बिकता वही माल है,

       हम से कहते है लोग तु भी आजमाले,

       पैसा कमाने की बस यही चाल है |


                               Author - Vikash soni


204. डूब गई नाओं,

       फिसल गया पाओ,

       अब तो जहाँ मिले छाओं,

       वही अपना गांव |


                                Author - Vikash soni


205. जतन लाख करलो तुम हमसा हमदम पाने की,

         जर्रा भर भी नहीं हमारे जैसा ढूंढ पाओगे तुम,

         नुमाइश लाख  कर लो इस जिस्म ज़माने में,

       रुह को दे जो सुकुन ऐसा चैन नहीं ढूंढ पाओगे तुम |


                                 Author - Vikash soni





                                  

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